भारतीय इतिहास में धनुर्विद्या का प्रचलन रामायण व महाभारत के समय चरमोत्कर्ष पर माना जाता है। जिसमें ऐसे धनुष और बाणों का परिष्कार हो चुका था कि जिनके द्वारा पूरी सेना का एक ही बाण से संहार किया जा सकता था। इस प्रकार के यौद्धा इसी पावन भारत भूमि पर जन्में हैं। लेकिन काल के प्रहार के साथ-साथ विभिन्न विद्यायें भी प्रायः लुप्त होती चली गई और इतिहास बन गई। धुनर्विद्या भी एक विद्या के रूप में थी लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तीरंदाजी एक खेल की विद्या बन कर रह गई है। तीरंदाजी का भारतीय इतिहास के साथ-साथ उत्तर प्रदेश तीरंदाजी का इतिहास भी अत्यन्त रोमांचक व दिलचस्प है। विश्व के अधिकांश देशों में तीरदांजी किसी न किसी रूप में इन्सानों के साथ जुड़ी रही है और खेलों के रूप में इसको विश्व-पटल पर प्रायोजित करने के लिए खेलों के महाकुम्भ ओलम्पिक में शामिल करना आवश्यक था, ओलम्पिक में 1900-1912 एवं 1920 में इसको शामिल किया गया लेकिन 1920 से 1972 तक ओलम्पिक खेलों से बाहर रही इसको 1972 ओलम्पिक में पुनः शामिल किया गया जिसमें भारतीय तीरंदाजी संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रो0 विजय कुमार मल्होत्रा का विशेष योगदान रहा। इसके पश्चात् तीरंदाजी देश में निरन्तर प्रसारित होती चली गई और आज भारत को भारतवासी ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व ओलम्पिक पदक प्राप्त करने की दावेदारी के रूप में देखता है। तीरंदाजी के आईकाॅन प्रतिरूप माने जाने वाले अर्जुन पुरष्कार व पदमश्री पुरष्कार से सम्मानित श्री लिम्बाराम को किसी विस्तृत परिचय की अपेक्षा नहीं है। समय 1992 ओलम्पिक बर्सिलोना, स्पेन में आयोजित हुए इसमें लिम्बाराम समेत अन्य दो खिलाड़ियों ने भाग लिया इसके अतिरिक्त कुल 85 खिलाड़ियों ने इस ओलम्पिक में भाग लिया। देश ओलम्पिक पदक की उम्मीद लगाये बैठा था लेकिन परिणाम निराशापूर्ण रहा देश में चर्चा चलती रही, आरोप प्रत्यारोप खिलाड़ियों खेल संघो व सरकारों पर लगते रहे। इस समय तीरंदाजी के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश सर्वथा देश के लिए अपरिचित था, लेकिन इसी दौरान प्रदेश एवं देश का इतिहास बदलने के लिए दो महानायक एक सन्त और दूसरा भक्त गंगोत्री व बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान संत शिरोमणी श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्दजी महाराज (प्राचार्य गुरूकुल प्रभात आश्रम, टीकरी, मेरठ) व उनके भक्त श्री स्वर्गीय सुभाष गुप्ता जी ने गंगोत्री बद्रीनाथ की इस यात्रा के दौरान स्वामी जी महाराज से चर्चा करते हुए कहा कि देश के विभिन्न खेलों के खिलाड़ियों ने 1992 के बर्सिलोना ओलम्पिक में भाग लिया था लेकिन एक भी पदक प्राप्त नहीं हुआ इस घटना से सुभाष जी का मन बहुत ही खिन्न व उद्वेलित था और इसको परिचय स्वरूप उन्हांेने श्रद्धेय स्वामी जी से आग्रह किया कि यह हमारी धनुर्विद्या प्राचीनकाल से ही गुरूकुल में सिखाई जाती रही है और आज भी यदि इसको गुरूकुल भूमि से आरम्भ किया जाये तो हमारा तीरंदाजी के क्षेत्र में देश के लिए एक छोटा सा सहयोग हो सकेगा। सुभाष जी के देश प्रेम से ओत प्रोत इन भावों को स्वामी जी महाराज ने तुरन्त भांप लिया और गुरूकुल प्रभात आश्रम टीकरी भोला मेरठ में तीरंदाजी आरम्भ कराने की अनुमति दे दी। सुभाष जी एक देशभक्त समाजसेवी होने के साथ-साथ कर्मठ व आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे उन्हीं के प्रयासों से वर्ष 1993 में ही गुरूकुल में लकड़ी व बांस के धनुष व तीर तथा लक्ष्य भेद उपलब्ध कराये गये एवं गुरूकुल के बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए दिल्ली के श्री गुरवचन सिंह जत्थेदार जी को नियुक्त किया जो सप्ताह में एक दिन गुरूकुल आया करते थे। यह क्रम लगातार लम्बे समय तक चलता रहा इसी मध्य राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए जिस धनुष की अपेक्षा थी वह देश में मिलता ही नहीं था अतः स्वयं विदेश जाकर गुरूकुल के खिलाड़ियों को धनुष उपलब्ध कराया उनकी इस दृढ इच्छाशक्ति और प्रयासों के अनुरूप खिलाड़ियों ने राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेना आरम्भ किया। प्रदेश की सर्वप्रथम दो वर्ष के अन्तराल में ही वेदकुमार सत्यदेव आदित्य की जोड़ी ने पहला टीम कांस्य पदक 1995 में कटक नेशनल में प्राप्त किया, इसी वर्ष सबजूनियर वर्ग में उत्तर प्रदेश तीरंदाजी टीम के आदित्य, योगेन्द्र राणा व सत्यदेव प्रसाद की तिगड़ी ने रजत पदक पर कब्जा किया। इसके पश्चात राष्ट्रीय खेलों में 1997 में गुरूकुल के ही धनुर्धरों ने व्यक्तिगत व टीम चैम्पियन की दौहरी स्वर्णिम सफलता हासिल कर सभी को अचम्भित कर दिया एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय टीम ने एशियन चैम्पियनशिप में कास्य पदक जीता जो कि देश को 8 वर्षो के बाद प्राप्त हुआ इसमें गुरूकुल से दो तीरंदाज वेदकुमार व सत्यदेव प्रसाद शामिल थे गुरूकुल की बढ़ती इस तीरंदाजी का श्रेय श्रद्धेय श्रीचरणों का मार्गदर्शन व सुभाष जी के अथक प्रयासों का परिणाम रहा। उत्तर प्रदेश की तीरंदाजी इस समय आदरणीय श्री कलराज मिश्रा की अध्यक्षता में एवं श्री सुभाष जी के महासचिव रहते हुए प्रदेश के अन्य जनपदों में भी होने लगी थी और राज्य तीरंदाजी प्रतियोगिताओं का आयोजन भी आरम्भ हो गया था, सुभाष जी के प्रयासों के फलस्वरूप ही जहाँ गुरूकुल प्रभात आश्रम तीरंदाजी में आगे बढ़ रहा था वहीं बालिकावर्ग को भी तैयार करने के लिए कन्यागुरूकुल चोटीपुरा की प्राचार्या सुश्री सुमेधा जी के सरंक्षण में उनके गुरूकुल में ही बालिकाओं की तीरंदाजी आरम्भ की गई इसके लिए मुख्य महिला प्रशिक्षिका की भूमिका श्रीमती लक्ष्मीप्रिया देवी ने निभाई वहाँ की महिला खिलाडियों ने भी राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्पर्धाओं में अनेकों पदक जीतकर प्रदेश का नाम उज्जवल किया है। प्रदेश के मात्र तीन ही तीरंदाज जिन्होंने ओलम्पिक में भाग लिया है वे हैं श्रीमती सुमंगला कन्यागुरूकुल चोटीपुरा एवं श्री सत्यदेवप्रसाद व मंगलसिंह चम्पिया गुरूकुल प्रभात आश्रम, जो कि गुरूकुलों की ही देन है लेकिन जिस व्यक्तित्व द्वारा इन गुरूकुलों में तीरंदाजी रूपी वृक्ष का बीजारोपण किया गया था वे वर्ष 2004 में स्वर्गवासी हो गये। इसके पश्चात् उनके द्वारा लगाये पौधे को सींचने के लिए उनके छोटे भाई श्री अजय गुप्ता जी ने प्रदेश की तीरंदाजी की बागडोर संभाली, तब से इसका विस्तार लगातार जारी है। जिसके फलस्वरूप प्रदेश के विभिन्न जनपदों में तीरंदाजी संघ व प्रशिक्षण संस्थान खुल चुके है। जिन से अनेकों राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ी प्रदेश एवं देश का नाम गौरवान्वित कर रहे है। वर्तमान समय में श्री अजय गुप्ता जी महासचिव उत्तर प्रदेश तीरंदाजी संघ के नेतृत्व में निरन्तर प्रगति पद पर अग्रेसित है इसकी प्रगति के लिए प्रदेश के वरिष्ठ खिलाड़ियों आचार्य वेदकुमार, योगेन्द्र राणा व सत्यदेव प्रसाद का सतत् सहयोग जारी है। श्री अजय जी के नेतृत्व ने देश में तीरंदाजी को नये आयाम तक पहुचाया है। जिसके कारण प्रदेश में राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया जाता रहा है। ये सभी प्रयास मात्र ओलम्पिक में स्वर्णपदक प्राप्त करने के लक्ष्य से ही किये जा रहे है और विश्वास है कि भविष्य में यह लक्ष्य अवश्य पूर्ण हो सकेगा।